1. भगवान् की शक्ति सदा तुम्हारे साथ है और मन की गतिविधियों, होश, श्वास, और भावनाओं के माध्यम से लगातार तुम्हे बस एक साधन की तरह प्रयोग कर के सभी कार्य कर रही है. अतेह तुम कुछ नहीं कर पाते, होता वह है जो में चाहता हूँ, तो मेरी श्रीमद पर चलकर तुम व्यर्थ के संताप और फलो में मिलने वाली देर से बच सकते हो! इसके लिए दुसरो को जानने से पहले से खुद को और खुद के भाग्य को समझो! क्योंकि किसी वस्तु को जाने बिना उसे बदलना संभव नहीं!
2. जो मन को नियंत्रित नहीं करते उनके लिए वह शत्रु के समान कार्य करता है, और जो करले उसके लिए सबसे बड़ा मित्र! पर मन मुझमे (ईश्वर में) लगाये बिना नियंत्रित करना संभव नहीं! अतेह जो मेरी श्रीमद पर नहीं उसका मन देर सवेर उससे शत्रुता अवश्य दिखाएगा!
3. अंधकार रुपी अज्ञान को केवल ज्ञान रुपी रौशनी ही हटा सकती है, क्योंकि कभी भी मन की यह जगह खली नहीं होती, ज्ञान नहीं होगा तो अज्ञान स्वयं होगा और ज्ञान के आते ही अज्ञान स्वयं अदृश्य हो जाएगा! यह दोनों उन दो तलवारों की भांति हैं जो एक मयान में नहीं रह सकतीं! तुम्हारा कर्त्तव्य है की आत्म-ज्ञान की तलवार से काटकर अपने ह्रदय से अज्ञान के संदेह को अलग कर दो. अनुशाषित रहो . उठो और जीवन के लक्ष्य प्राप्त करो!
4. मनुष्य जो भी बनता है या अर्जित करता है वह उसकी अभिवृति, मनोभाव और अपने ऊपर विश्वास से निर्मित होता है.जैसा वो विश्वास करता है में उसे कहता हूँ तथास्तु और वो वैसा ही बन जाता है.
5. हर जीव आत्मा में एक अद्भुत शक्ति है कर्म की जिसे अपने भाग्य के साथ श्रीमद को पहचान प्रयोग करे तो व्यक्ति जो चाहे बन सकता है यदी वह विश्वास के साथ इच्छित वस्तु पर लगातार चिंतन और कर्म करे!
6. हर व्यक्ति का विश्वास उसकी प्रकृति के अनुसार होता है, अतेह मात्र कर्म नहीं प्रकर्ति और परवर्ती में परिवर्तन भी परमावश्यक है!
7. बिना ज्ञान के जीवन का आनंद लेना संभव नहीं और मैं (ईश्वर) केवल उन्हें ज्ञान देता हूँ जो सदा मुझसे जुड़े रहते हैं और जो मुझसे प्रेम करते हैं! क्योंकि येही अश्व स्वरूपी मन को नियंत्रित करने का तरीका भी हैं!
8. मैं सभी प्राणियों को सामान रूप से देखता हूँ; ना कोई मुझे कम प्रिय है ना अधिक. लेकिन जो मेरी प्रेमपूर्वक आराधना करते हैं वो मुझे बांध लेते हैं, वो मेरे भीतर रहते हैं और मैं उनके जीवन में अवश्य आता हूँ! में किसी हठ योग नहीं मात्र प्रेम और ज्ञान से पाया जा सकता हूँ!
9. अल्प मति वाले व्यक्ति, दुसरे व्यक्तियों और परिस्थितियों के सामने लाभ के लिए झुकते हैं और निर्भर बनते हैं पर कुछ प्राप्त नहीं कर पाते पर बुद्धिमान गुरु से श्रीमद समझ सिवाय ईश्वर के किसी और पर निर्भर नहीं करता! और यही उसकी अथाह प्राप्तियों का मूल मंत्र है!
10. मेरी कृपा से कोई सभी कर्तव्यों का निर्वाह करते हुए भी बस मेरी शरण में आकर अनंत अविनाशी निवास को प्राप्त करता है! जबकि हठ में बेठा घमंडी योगी भी मुझे पा न सके!
11. अज्ञानी मुझे मूर्तियों में ढूँढ़ते हैं और ज्ञानी जहाँ बेठे वहां मंदिर क्योंकि मैं प्रत्येक वस्तु और स्थान में हूँ और सबके ऊपर भी, जहाँ तुम मुझमे प्रेम और श्रध्हा लगाओ!
12. मेरे सार्वलौकिक रूप का न प्रारंभ न मध्य न अंत है, इस कारण मुझे वक्त, कर्म, वस्तु, तथ्य, धर्म, नाम, मूरत या स्थान में बांधना असंभव है! मैं मात्र भावना में ही बाँधा जा सकता हूँ और कंही नहीं!
13. कर्म मुझे बांधता नहीं, क्योंकि मुझे कर्म के प्रतिफल की कोई इच्छा नहीं; जबकि जीवात्माओ को बांधता है क्योंकि उनके सभी कर्म फल प्रधान होते हैं! फल की इच्छा छोड़ कर्म करने वाला हर कर्म में साक्षात् मेरी प्राप्ति करता है!
14. जो मुझे दर दर भटक कर ढूँढता नहीं रहता और उस भटकने के समय को बचाकर एकांत में ग्रेहस्थ में रहकर भी मुझसे प्रेम करता है और मुझमे लीन होता है वह मेरा परम भक्त है, और वह मेरा हर परम भक्त जो हमेशा मेरा स्मरण या एक-चित्त मन से मेरा पूजन करता हैं, मैं व्यक्तिगत रूप से उनके कल्याण का उत्तरदायित्व लेता हूँ, और हर समय उसके साथ हूँ!
15. जो आत्मन आध्यात्मिक जागरूकता के शिखर तक पहुँच चुके हैं, उनका मार्ग है निःस्वार्थ कर्म और जो भगवान् के साथ संयोजित हो चुके हैं उनका मार्ग है स्थिरता और शांति, न केवल खुद के लिए बल्कि संसार के लिए भी!
16. मैं इन्द्रियों और उनके बन्धनों से परे हूँ अतेह मेरे लिए ना कोई घृणित है ना प्रिय .किन्तु जो व्यक्ति भक्ति के साथ मेरी पूजा करते हैं, वो मेरे साथ हैं और मैं भी उनके साथ हूँ, क्योंकि यही मेरे अनुसार इस सृष्टि को सञ्चालन में मेरे सहयोगी बनते हैं!
17. जो इस लोक में अपने काम की सफलता की कामना रखते हैं वे तन से अधिक मन से मुझमे लीन हो जाये! क्योंकि हे पर्थ जब तक तुम अपने रथ की लगाम छोड़ोगे नहीं, मैं तुम्हारे रथ को संभालूँगा केसे! तो बस समर्पित हो जाओ और फिर तुम्हारा सब कार्य मेरा उत्तरदायित्व बन जाता हैं!
18. सबसे नीच व्यक्ति और बुरे कर्म करने वाले, जो राक्षसी प्रवित्तियों से जुड़े हुए हैं , वो मेरी पूजा या मुझे पाने का प्रयास नहीं करते .और जिनकी बुद्धि माया ने हर ली है और मेरी पूजा का ढोंग करते हैं पर मन माया में फँस कर मुझमे लगता नहीं! एसे दोनों ही स्थितियों में कर्म विकर्म होकर विफल हो जाते हैं, और दुनिया त्राहि त्राहि करती रहती हैं!
19. जो कोई भी जिस किसी भी देवता की पूजा विश्वास के साथ करने की इच्छा रखता है , मैं उसका विश्वास उसी देवता में दृढ कर देता हूँ, और जहाँ करता है वन्ही फल देता हूँ! पर मुझे पहचान कर याद करने वाला तो मुझसे जीवन के खजाने पा लेता हैं!
20. मुझे इमारतो या आकाश में न ढूँढो, मैं सभी प्राणियों के ह्रदय में विद्यमान हूँ .
कुछ मुख्य श्लोक भावार्थ सहित
एवं सततयुक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते । ये चाप्यक्षरमव्यक्तं तेषां के योगवित्तमाः ॥
भावार्थ : अर्जुन बोले- जो अनन्य प्रेमी भक्तजन पूर्वोक्त प्रकार से निरन्तर आपके भजन-ध्यान में लगे रहकर आप सगुण रूप परमेश्वर को और दूसरे जो केवल अविनाशी सच्चिदानन्दघन निराकार ब्रह्म को ही अतिश्रेष्ठ भाव से भजते हैं- उन दोनों प्रकार के उपासकों में अति उत्तम योगवेत्ता कौन हैं?
1. श्रीभगवानुवाच
मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते । श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मताः ॥
भावार्थ : श्री भगवान बोले- मुझमें मन को एकाग्र करके निरंतर मेरे भजन-ध्यान में लगे हुए, जो भक्तजन अतिशय श्रेष्ठ श्रद्धा से युक्त होकर मुझ सगुणरूप परमेश्वर को भजते हैं, वे मुझको योगियों में अति उत्तम योगी मान्य हैं
2. ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते। सर्वत्रगमचिन्त्यं च कूटस्थमचलं ध्रुवम् ॥
सन्नियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः। ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः ॥
भावार्थ : परन्तु जो पुरुष इन्द्रियों के समुदाय को भली प्रकार वश में करके मन-बुद्धि से परे, सर्वव्यापी, अकथनीय स्वरूप और सदा एकरस रहने वाले, नित्य, अचल, निराकार, अविनाशी, सच्चिदानन्दघन ब्रह्म को निरन्तर एकीभाव से ध्यान करते हुए भजते हैं, वे सम्पूर्ण भूतों के हित में रत और सबमें समान भाववाले योगी मुझको ही प्राप्त होते हैं
3. मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय । निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशयः ॥
भावार्थ : मुझमें मन को लगा और मुझमें ही बुद्धि को लगा, इसके उपरान्त तू मुझमें ही निवास करेगा, इसमें कुछ भी संशय नहीं है
4. अथ चित्तं समाधातुं न शक्रोषि मयि स्थिरम् । अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं धनञ्जय ॥
भावार्थ : यदि तू मन को मुझमें अचल स्थापन करने के लिए समर्थ नहीं है, तो हे अर्जुन! अभ्यासरूप (भगवान के नाम और गुणों का श्रवण, कीर्तन, मनन तथा श्वास द्वारा जप और भगवत्प्राप्तिविषयक शास्त्रों का पठन-पाठन इत्यादि चेष्टाएँ भगवत्प्राप्ति के लिए बारंबार करने का नाम 'अभ्यास' है) योग द्वारा मुझको प्राप्त होने के लिए इच्छा कर
5. अभ्यासेऽप्यसमर्थोऽसि मत्कर्मपरमो भव । मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन्सिद्धिमवाप्स्यसि ॥
भावार्थ : यदि तू उपर्युक्त अभ्यास में भी असमर्थ है, तो केवल मेरे लिए कर्म करने के ही परायण (स्वार्थ को त्यागकर तथा परमेश्वर को ही परम आश्रय और परम गति समझकर, निष्काम प्रेमभाव से सती-शिरोमणि, पतिव्रता स्त्री की भाँति मन, वाणी और शरीर द्वारा परमेश्वर के ही लिए यज्ञ, दान और तपादि सम्पूर्ण कर्तव्यकर्मों के करने का नाम 'भगवदर्थ कर्म करने के परायण होना' है) हो जा। इस प्रकार मेरे निमित्त कर्मों को करता हुआ भी मेरी प्राप्ति रूप सिद्धि को ही प्राप्त होगा
6. यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च यः। हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो यः स च मे प्रियः॥
भावार्थ : जिससे कोई भी जीव उद्वेग को प्राप्त नहीं होता और जो स्वयं भी किसी जीव से उद्वेग को प्राप्त नहीं होता तथा जो हर्ष, अमर्ष (दूसरे की उन्नति को देखकर संताप होने का नाम 'अमर्ष' है), भय और उद्वेगादि से रहित है वह भक्त मुझको प्रिय है
7. तुल्यनिन्दास्तुतिर्मौनी सन्तुष्टो येन केनचित्। अनिकेतः स्थिरमतिर्भक्तिमान्मे प्रियो नरः॥
भावार्थ : जो निंदा-स्तुति को समान समझने वाला, मननशील और जिस किसी प्रकार से भी शरीर का निर्वाह होने में सदा ही संतुष्ट है और रहने के स्थान में ममता और आसक्ति से रहित है- वह स्थिरबुद्धि भक्तिमान पुरुष मुझको प्रिय है
8. ये तु धर्म्यामृतमिदं यथोक्तं पर्युपासते। श्रद्धाना मत्परमा भक्तास्तेऽतीव मे प्रियाः॥
भावार्थ : परन्तु जो श्रद्धायुक्त (वेद, शास्त्र, महात्मा और गुरुजनों के तथा परमेश्वर के वचनों में प्रत्यक्ष के सदृश विश्वास का नाम 'श्रद्धा' है) पुरुष मेरे परायण होकर इस ऊपर कहे हुए धर्ममय अमृत को निष्काम प्रेमभाव से सेवन करते हैं, वे भक्त मुझको अतिशय प्रिय हैं
9. देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः । परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ ॥
भावार्थ : तुम लोग इस यज्ञ द्वारा देवताओं को उन्नत करो और वे देवता तुम लोगों को उन्नत करें। इस प्रकार निःस्वार्थ भाव से एक-दूसरे को उन्नत करते हुए तुम लोग परम कल्याण को प्राप्त हो जाओगे
10. इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः । तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुंक्ते स्तेन एव सः ॥
भावार्थ : यज्ञ द्वारा बढ़ाए हुए देवता तुम लोगों को बिना माँगे ही इच्छित भोग निश्चय ही देते रहेंगे। इस प्रकार उन देवताओं द्वारा दिए हुए भोगों को जो पुरुष उनको बिना दिए स्वयं भोगता है, वह चोर ही है
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